Caste Census : आंकड़ों से आकार लेगी समता की नई दिशा

Caste Census : भारत की मिट्टी में सदियों से बसी जाति व्यवस्था सिर्फ सामाजिक संरचना नहीं, बल्कि शक्ति, संसाधनों और अवसरों के बंटवारे का आधार रही है। ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन ने इस व्यवस्था को और पुख्ता किया, जब 1872 में पहली जनगणना ने देश को न केवल गिना, बल्कि उसे धर्म, जाति, पेशे और यहाँ तक कि ‘जन्मना अपराधी’ जैसे आधारों पर बाँटकर एक सांख्यकीय ढांचे में ढाल दिया। सांपों से लेकर भालुओं तक की गिनती करने वाले इस शासन ने भारत को आंकड़ों के जाल में बांधा, जिसका असर आजादी के बाद भी गहरा रहा। लेकिन क्या आज जाति जनगणना महज अतीत की नकल है, या यह देश की दशा सुधारने का एक शक्तिशाली औजार बन सकती है? आइए, इस सवाल को नए नजरिए से देखें।

संख्याओं का खेल: ताकत या त्रासदी?

ब्रिटिश शासन में जनगणना सिर्फ गिनती नहीं थी, बल्कि शासन और नियंत्रण का हथियार थी। 1871 का क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट इसका ज्वलंत उदाहरण है, जिसने लाखों लोगों को ‘जन्मना अपराधी’ घोषित कर उनके जीवन को हाशिए पर धकेल दिया। 1931 की जनगणना ने तो जाति को और गहराई से भारतीय समाज का हिस्सा बना दिया, जब गांधी और आंबेडकर जैसे नेताओं के बीच पूना समझौते ने इसे राजनीतिक और सामाजिक विमर्श का केंद्र बना दिया।

आजादी के बाद भी यह सिलसिला थमा नहीं। संविधान सभा में नेताओं ने 1931 की जनगणना के आंकड़ों को आधार बनाकर अपनी-अपनी आबादी की ताकत दिखाई। शिब्बन लाल सक्सेना ने कानपुर की बढ़ती जनसंख्या का हवाला दिया, तो जयपाल सिंह मुंडा ने आदिवासियों की 3 करोड़ की संख्या को ‘धरती पुत्रों’ की पहचान से जोड़ा। ये आंकड़े सिर्फ संख्या नहीं थे, बल्कि राजनीतिक ताकत, संसाधनों और प्रतिनिधित्व की मांग का आधार बन गए।

विकास का आधार बने आंकड़े

आजादी के बाद जवाहरलाल नेहरू ने जनगणना को देश के विकास का आधार बनाया। उनके भाषणों में जनसंख्या के आंकड़े भोजन, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने की चुनौती के प्रतीक थे। पंचवर्षीय योजनाओं ने इन आंकड़ों को नीतियों का आधार बनाया, जिससे भारत ने प्रगति की राह पकड़ी। लेकिन इसके समानांतर, जाति आधारित आंकड़ों ने सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों को भी जन्म दिया।

काका कालेलकर आयोग और मंडल आयोग जैसे प्रयासों ने पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की वकालत की, लेकिन इनकी सिफारिशें या तो ठंडे बस्ते में पड़ीं या लागू होने पर विवादों में घिरीं। 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने का फैसला हिंसा और विरोध का कारण बना, लेकिन 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे ‘क्रीमी लेयर’ की शर्त के साथ मंजूरी दी। तीन दशक बाद भी आरक्षण का लाभ कुछ ही जातियों तक सीमित रहा, जिससे सवाल उठता है: क्या बिना सटीक आंकड़ों के सामाजिक न्याय संभव है?

जाति जनगणना: आधुनिक भारत की जरूरत

कई लोग जाति जनगणना को पुरातन और जातिवाद को बढ़ावा देने वाला कदम मानते हैं। लेकिन यह तर्क उस सच्चाई को नजरअंदाज करता है कि भारत में जाति आज भी सामाजिक और आर्थिक असमानता का मूल है। जाति जनगणना को सिर्फ गिनती तक सीमित रखना गलत होगा। यह एक ऐसा अवसर है, जो हमें आर्थिक संकेतकों, शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में हर समुदाय की स्थिति को समझने का मौका दे सकता है।

उदाहरण के लिए, 1931 की जनगणना के आधार पर डॉ. बीआर आंबेडकर ने ‘क्रिमिनल ट्राइब्स’ की 2 करोड़ आबादी की दुर्दशा को उजागर किया था। हाल के दशकों में घुमंतू और विमुक्त समुदायों के लिए बने आयोगों ने भी ऐसी ही गणना की जरूरत पर जोर दिया, लेकिन उनकी सिफारिशें लागू नहीं हुईं। अगर आज हम अनुसूचित जातियों, जनजातियों, पिछड़े वर्गों और सामान्य वर्गों की सटीक आबादी और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति जान सकें, तो नीतियां अधिक समावेशी और प्रभावी बन सकती हैं।

आत्म-छल से मुक्ति का समय

भारत में जाति एक ऐसी हकीकत है, जिसे लोग निजी जीवन में अपनाते हैं, लेकिन सार्वजनिक मंचों पर नकारते हैं। हर समुदाय अपनी संख्या बढ़ा-चढ़ाकर पेश करता है, और नीति-निर्माता पूर्वाग्रहों के आधार पर फैसले लेते हैं। जाति जनगणना इस भ्रम को तोड़ सकती है। अगर इसमें कालेलकर आयोग की सिफारिश को अपनाया जाए, और जनगणना कार्यालयों में अर्थशास्त्रियों के साथ-साथ मानवविज्ञानी और समाजशास्त्री भी शामिल हों, तो यह न केवल आंकड़े देगी, बल्कि समाज की गहरी समझ भी प्रदान करेगी।

सच का सामना, समता का सपना

जाति जनगणना सिर्फ संख्याओं की बात नहीं है। यह उन विशेषाधिकारों और असमानताओं को उजागर करने का मौका है, जो भारतीय समाज को बांटती हैं। डॉ. आंबेडकर ने 1943 में चेतावनी दी थी कि आर्थिक असमानता लोकतंत्र को नष्ट कर सकती है। अगर जाति जनगणना को सिर्फ राजनीतिक हथियार बनने दिया गया, तो यह सामाजिक न्याय के बजाय सामाजिक विभाजन को बढ़ावा देगी। लेकिन अगर इसे आर्थिक बराबरी और समावेशी विकास का आधार बनाया गया, तो यह भारत को एक नई दिशा दे सकती है।

जाति जनगणना का समय आ गया है। यह न केवल हमारी वास्तविकता को आईना दिखाएगी, बल्कि एक ऐसे भारत का निर्माण करेगी, जहां हर समुदाय को उसका हक और सम्मान मिले।

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